हिंदी कविताएं
बादशाह

बादशाह

बदला है मौसम या इक नया दौर चला है
हर एक टुकडा जंग का मैदान हो चला है

न कोई निशां देखने वाला रहा मुस्तक़बिल मैं
वो अपने ही रंग, अपना ही परचम ले चला है

गुजरता गया वक्त अपनो का, अपनेपन का
हर कोई खुदकाही जुलूस आगे ले चला है

कहीं अपना बिलख़ रहा होगा आसपड़ोस मैं
ये अलग़ राहको ही सही मकाम कह चला है

वैसे तो हक़ की नहीं है दो बिघा जमीन भी
और ये पैरोंतले दबे टुकड़े का बादशाह हो चला है

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